बर्बाद होती अर्थव्यवस्था, बदहाल होती जनता के सवाल

आलेख : संजय पराते

देश मे सत्तारूढ़ गिरोह और कॉर्पोरेटों ने मिलकर ‘अंधभक्तों’ की जिस फौज को खड़ा किया है, वे बिलबिला रहे हैं, क्योंकि अबकी बार चोट उनको पड़ी है. वे नोटबंदी से गरीब जनता की बर्बादी पर खुश थे, क्योंकि इस बर्बादी के छींटे उन पर नहीं पड़े थे और जनता की तबाही में वे विपक्ष की तबाही देख रहे थे. वे विपक्षमुक्त भारत बनाना चाहते थे, ताकि हिन्दू राष्ट्र का घोड़ा मुस्लिमों को कुचलता हुआ निर्विघ्न सरपट दौड़े. वे कॉर्पोरेटों को दिए गए डेढ़ लाख करोड़ रुपयों के उपहार से खुश थे, क्योंकि उन्हें आशा थी कि इसके कुछ कतरे उन तक भी पहुंचेगी और उनकी सुस्ती दूर होगी और वे सरपट दौड़ने भी लगेंगे. वे मोदी के हर कदम को सर्जिकल स्ट्राइक मान रहे थे, लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि अबकी बार उसकी गाज के शिकार स्वयं भक्त ही होने वाले हैं.

इस संघी गिरोह की नीतियों ने सरकारी बैंकों की लूट के जो दरवाजे खोले, उसके परिणाम आने अभी शुरू ही हुए हैं. अभी केवल पंजाब और महाराष्ट्र को-आपरेटिव (पीएमसी) बैंक ही दिवालिया हुआ है. यह एक बहुत छोटा बैंक हैं, जिसके मात्र 50000 जमाकर्ता है, जिनके लगभग 12000 करोड़ रुपये ही जमा है, यानी प्रति ग्राहक औसतन 24 लाख रुपये ही. लेकिन हम समझ सकते हैं कि यह उनकी जीवन-भर की कमाई होगी.

बैंक डूब चुका है,किसने इसे लूटा-डुबाया होगा, हम-आप समझ सकते हैं. भक्तगण भी समझेंगे, लेकिन इसमें समय लगेगा. अभी तो उनके दहाड़ मारकर रोने-धोने-कोसने का समय है. जब यह समय निकल जाएगा, तो सड़कों पर खड़े होकर उन्हें सब कुछ साफ-साफ दिखेगा कि मोदी-शाह के रथ ने किसको कुचला है, किसको फांसी पर चढ़ाया है, किसके पांव पखारे हैं और विदेशों में जाकर किसके साथ गलबहियां की हैं. इस बैंक के डूबने पर रिज़र्व बैंक ने मुहर लगा दी है. अब बैंक के जमाकर्ता अगले 6 माह में केवल अधिकतम 5 करोड़ रुपये ही निकाल पाएंगे, जो उनकी जमा राशि का औसतन मात्र 0.042% ही है. याने हर 10000 रुपये की जमा राशि पर उन्हें मात्र 4 पैसे ही लौटाए जाएंगे!

लेकिन याद रखिये, बैंक से केवल धन निकासी पर ही रोक लगी है, जमा करने पर नहीं. इस बैंक के अधिकांश ग्राहक मध्यमवर्गीय कर्मचारी हैं, नियोक्ता उनकी तनख्वाह सीधे बैंक में जमा कर देते हैं , कम-से-कम इस माह की तनख्वाह तो जमा हो ही जाएगी. मतलब साफ है, अगले 6 महीने में जो 5 करोड़ निकलने वाले है, वे इसी महीने जमा हो जाएंगे.ऐसे ग्राहकों को अपने बच्चों को भूखे मारने और सड़कों पर भीख मांगने के लिए खड़ा भी हमें देखना होगा, लेकिन इनमें से सभी अंधभक्त नहीं होंगे.

सरकारी बैंक डूब गया, रिज़र्व बैंक को उसकी मृत्यु की घोषणा करना बाकी है, सरकार अर्थव्यवस्था को सुस्त बता रही है, तो रिज़र्व बैंक पीएमसी को कोमा में बता रहा है. वेंटिलेटर हटेगा, तो बैंक के साथ और कईयों की मृत्यु होगी, उसकी भी घोषणा करनी पड़ेगी, लेकिन इन मौतों से मोदी के कॉर्पोरेटी विकास के चेहरे की चमक और बढ़ेगी.

हमने कई निजी बैंकों और चिट-फंड कंपनियों को डूबते देखा है. अब सरकारी बैंकों के डूबने और उसके साथ कई ग्राहकों-निवेशकों के आत्महत्या करने का नजारा भी देखेंगे. जी हां, अब ग्राहकों-निवेशकों के पास आत्महत्या करने के सिवा कोई चारा नहीं बचता, क्योंकि ग्राहकों की रक्षा का जो भार कानूनन रिज़र्व बैंक पर है, वह इस भार को उठाने में असमर्थ है, क्योंकि मोदी सरकार उसे पहले ही लूट चुकी है और अब तो केवल उसकी सांसें चल रही हैं. रिज़र्व बैंक अपने मुनाफे का 99% पहले से ही सरकार को देती आई है और बचे 1% को हाथ लगाने की हिम्मत किसी सरकार की आज तक हुई नहीं थी. लेकिन बंदे में दम है कि रिज़र्व बैंक के पहले के गवर्नरों को धकियाकर, उन्हें गरियाकर जिस पिट्ठू इतिहास स्नातकोत्तर को इस प्रतिष्ठित पद पर बैठाया गया है, उसने रिज़र्व बैंक को ही इतिहास बनाने का बीड़ा उठा  डाला और मोदी की मंशा के मुताबिक अपने रिज़र्व फंड में से पौने दो लाख करोड़ रुपये सरकार को अपने मनमाने खर्चे और वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए दे दिए. अब जमाकर्ताओं की जमा राशि की सुरक्षा के लिए उसके पास कोई गारंटी नहीं है.

यह पीएमसी के डूबने/दिवालिया होने का क्षण नहीं, हमारी अर्थव्यवस्था की सांसें उखड़ने का क्षण है. किसी मोदी, किसी माल्या की लूट और किसी अंबानी, किसी अडानी के मुनाफे कीमत पर हम सबको एक ऐसी मौत की ओर धकेला जा रहा है, जिससे निकलने का एक ही रास्ता है — हम सब मिलकर एक ऐसी चट्टानी दीवार बनाएं, जो मोदी-माल्या-अडानी के इस खूनी रथ को रोक सके.

वामपंथी ताकतें, जिनकी मृत्यु की घोषणा करते , संघी गिरोह और उनके अनुयायी अंधभक्त थकते नहीं हैं, इसी एकता और संघर्ष के निर्माण में अथक लगे हुए हैं. अगले माह के दूसरे पखवाड़े वे सड़कों पर दिखेंगे — बैंक, बीमा और सार्वजनिक उद्योगों की रक्षा करने, इन उद्योगों में जारी निजीकरण-विनिवेशीकरण की नीतियों को पलटने की मांग करते हुए, हमारे गरीब और मध्यमवर्गीय बैंक ग्राहकों को बचाने की मांग करते हुए, इन नीतियों की चोट से प्रभावित अंधभक्तों के हितों की रक्षा करने की मांग के साथ भी. यह संघर्ष दिखायेगा कि देश की जनता केवल और केवल उसके साथ होगी, जो देश को जमीन के एक टुकड़े के रूप में नहीं देखते, वहां रहने वाले लोगों की धड़कन-स्पंदनों में गिनते है.

नोट- लेखक संजय पराते वामपंथी विचारक एवं नेता हैं आलेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं.

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